भारत के हृदय में स्थित, छत्तीसगढ़, अपने खनिज और संपदा- कोयला खदान होने के कारण हमेशा से कारखानों का बड़ा केंद्र रहा है. यही कारण है कि यहां मजदूरों के आंदोलन भी हमेशा होते रहे हैं. इसी धरा पर जन्म लिया एक खास इंसान ने – ठाकुर प्यारेलाल सिंह.
वह सिर्फ देश को आजाद कराने वाले सिपाही ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने मजदूरों के हक के लिए भी बहुत लड़ाई लड़ी. उनका जीवन हमें सिखाता है कि कैसे त्याग, मेहनत और दूसरों की भलाई के लिए काम करना चाहिए. इसी कारण से लोग उन्हें ‘त्यागमूर्ति’ कहते थे, जिसका मतलब है ‘त्याग की मूर्ति’.
आइए, उनके जीवन की इस कहानी को जानें-
ठाकुर प्यारेलाल सिंह का जन्म 21 दिसंबर, 1891 को राजनांदगांव तहसील (जो अब छत्तीसगढ़ में है) के देहान गांव में हुआ था. वर्तमान में राजनांदगांव छत्तीसगढ़ के मध्य भाग में स्थित एक महत्वपूर्ण जिला. 1998 में, इसके कुछ हिस्सों को अलग कर कबीरधाम (कवर्धा) जिले का गठन किया गया था, और हाल ही में मोहला-मानपुर-चौकी भी इससे अलग होकर एक नया जिला बना है.
उनके परिवार की बात करें तो पिता का नाम दीनदयाल सिंह और माता का नाम नर्मदा देवी था. बचपन से ही ठाकुर प्यारेलाल बौद्धिक और राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित थे. वह कहीं भी अन्याय देखते तो उसके खिलाफ आवाज जरूर उठाते थे.
ठाकुर प्यारेलाल की शिक्षा और अन्याय संघर्ष
प्रारंभिक शिक्षा: उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजनांदगांव में प्राप्त की.
हाई स्कूल: उन्होंने रायपुर के गवर्नमेंट हाईस्कूल से हाईस्कूल की शिक्षा पूरी की.
उच्च शिक्षा: उन्होंने हिस्लाप कॉलेज (Hislop College), नागपुर से इंटरमीडिएट (Intermediate) की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके बाद, उन्होंने 1913 में नागपुर से कला में स्नातक (B.A.) की उपाधि प्राप्त की.
वकालत की शिक्षा: उन्होंने 1916 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की और वकील बने.
बचपन से ही उन्होंने अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना शुरु कर दिया था. 1905 के दौरान उनके स्कूल की फीस बढ़ा दी गई और गरीब छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने से रोकने के लिए गणवेश अनिवार्य कर दिया गया. इसके खिलाफ ठाकुर प्यारेलाल जी के नेतृ्त्व में छात्रों ने हड़ताल की और उसमें सफलता भी प्राप्त की.
अगले ही वर्ष 1906 में वे बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों के मिले और क्रांतिकारी साहित्य का प्रचार-प्रसार शुरू किया तथा छात्रों को संगठित कर जुलूस के समय वंदे मातरम का नारा लगवाया.
ठाकुर प्यारेलाल सिंह 1907 में अपने छात्र जीवन के दौरान ही दो महान राष्ट्रवादी नेताओं – लोकमान्य तिलक और माधवराव सप्रे – के संपर्क में आए. इस शुरुआती मुलाकात का उनके युवा मन और भविष्य की दिशा पर गहरा प्रभाव पड़ा कि वे तब से ही स्वदेशी कपड़े पहनने लगे.
लोकमान्य तिलक, जो उस समय भारतीय राष्ट्रवाद के एक अग्रणी और मुखर प्रतीक थे, और माधवराव सप्रे, जो छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय चेतना जगाने वाले प्रमुख शख्सियतों में से एक थे. उन दोनों के विचारों ने प्यारेलाल सिंह को देशभक्ति और जनसेवा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया. यह संपर्क उनके भीतर स्वतंत्रता संग्राम के प्रति गहरी निष्ठा और सामाजिक न्याय की भावना को विकसित करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ.
शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता में गहरी रुचि
ठाकुर प्यारेलाल सिंह को बचपन से ही शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता में गहरी रुचि थी. वे सिर्फ एक विद्यार्थी नहीं थे, बल्कि ज्ञान के प्रसार और सामाजिक जागृति के प्रति भी समर्पित थे. इसी सोच के साथ, उन्होंने 1909 में राजनांदगांव में ‘सरस्वती पुस्तकालय’ की स्थापना की.
‘सरस्वती पुस्तकालय’ की आंदोलन में भूमिका
यह ‘सरस्वती पुस्तकालय’ केवल किताबों का संग्रह नहीं था, बल्कि यह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया. ब्रिटिश शासन के दौरान, जब राष्ट्रवादी विचारों और साहित्य पर प्रतिबंध था, ऐसे में यह पुस्तकालय एक गुप्त गढ़ के रूप में उभरा.
पुस्तकालय में देश-विदेश के समाचार पत्र, पत्रिकाएं और किताबें उपलब्ध थीं, जिनके माध्यम से लोग तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रगति के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे. यह स्थानीय युवाओं और बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने का एक प्रभावी माध्यम बना.
‘सरस्वती पुस्तकालय’ ने क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों और स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए एक मिलन स्थल के रूप में काम किया. यहीं पर वे गुप्त बैठकें करते थे, रणनीतियां बनाते थे और भविष्य के आंदोलनों की योजनाएं तैयार करते थे.
साथ ही यह पुस्तकालय खुले विचारों और राष्ट्रवादी बहसों का केंद्र था, जहां लोग ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करते थे और स्वतंत्रता प्राप्त करने के तरीकों पर चर्चा करते थे. इसने लोगों में देशभक्ति की भावना को और मजबूत किया.
छत्तीसगढ़ में श्रमिक आन्दोलन के संस्थापक
ठाकुर प्यारेलाल सिंह को छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है, और इसका श्रेय उनके दूरदर्शी नेतृत्व और मजदूरों के प्रति गहरी संवेदनशीलता को जाता है.
श्रमिकों से पहला संपर्क और प्रेरणा (1916)
वर्ष 1916 में, ठाकुर प्यारेलाल सिंह का राजनांदगांव की सूती मिल के श्रमिकों से पहली बार सीधा संपर्क हुआ. उन्होंने उनकी दयनीय कार्य-स्थितियों को करीब से देखा. मिल मजदूर अमानवीय परिस्थितियों में काम कर रहे थे, उन्हें प्रतिदिन 12 घंटे या उससे भी अधिक (12-14 घंटे) काम करना पड़ता था, और उसके बदले में उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती थी.
इन परिस्थितियों को देखकर प्यारेलाल सिंह का हृदय द्रवित हो उठा और उन्हें महसूस हुआ कि इन मजदूरों के अधिकारों की रक्षा और उनके जीवन में सुधार के लिए एक मजबूत संगठन की आवश्यकता है. यहीं से उन्हें श्रमिक आंदोलन शुरू करने की प्रेरणा मिली.
असहयोग आन्दोलन 1920
सन् 1915 में प्यारेलालजी ने दुर्ग में वकालत आरम्भ की थी, पर सन् 1920 में जब नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने असहयोग आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की तो ठाकुर प्यारेलाल ने अपनी वकालत छोड़ दी और जिले भर में असहयोग आन्दोलन का प्रचार करने निकल पड़े.
असहयोग आन्दोलन के दौरान न जाने कितने विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिये, कितने वकीलों ने वकालत छोड़ दी.
ठाकुर प्यारेलाल जी के भाईयों ने भी स्कूल छोड़ दिया. उन स्कूल छोड़े हुए विद्यार्थियों के लिये ठाकुर प्यारेलाल सोचने लगे कि क्या किया जाये. बाद में उन विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना की गई थी. प्यारेलाल जी ने खुद राजनांदगांव में एक माध्यमिक स्कूल की स्थापना की थी. धमतरी में राष्ट्रीय विद्यालय का दायित्व भी प्यारेलाल जी को सौंपा गया था. उनके पिता श्री दीनदयाल सिंह उन स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर थे जो राजनांदगांव, छुईखदान और कवर्धा रियासतों के थे.
वकालत छोड़ने के बाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने अपना जीवन पूरी तरह से गांधीवादी सिद्धांतों को समर्पित कर दिया. वह गाँव-गाँव घूमकर चरखे और खादी का प्रचार करने लगे. यह प्रचार सिर्फ दूसरों के लिए नहीं था, बल्कि यह उनके अपने जीवन का भी अभिन्न अंग बन गया था.
उनकी सादगी और त्याग का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन दिनों प्यारेलाल सिंह केवल एक ही खादी की धोती पहनते थे. इसी धोती को पहनकर वे स्नान करते, एक छोर को पहने रखते हुए दूसरे छोर को सुखाते, और सूखने पर उसे बदल लेते. ऐसा तीन साल तक चलता रहा. यह उनके उस असाधारण त्याग और देश प्रेम को दर्शाता है, जो उस दौर के कई स्वतंत्रता सेनानियों में देखने को मिलता था.
राजनांदगांव मिल मजदूर आंदोलन की शुरुआत (1919-1920)
अपनी इसी प्रेरणा के साथ, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने 1919-1920 के दौरान, राजनांदगांव रियासत में हुए तीन प्रमुख श्रमिक आंदोलनों में से पहले का नेतृत्व किया. यह आंदोलन विशेष रूप से राजनांदगांव की कॉटन मिल के मजदूरों की दयनीय स्थिति को सुधारने पर केंद्रित था. उन्होंने मजदूरों की दुर्दशा को समझा, उन्हें संगठित किया और उनके शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया.
प्रथम आंदोलन (1919-1920) और उसकी विशिष्टता
प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में, 1919-20 में मिल मजदूरों ने एक ऐतिहासिक हड़ताल की, जो पूरे 37 दिनों तक चली. यह हड़ताल न केवल छत्तीसगढ़ के लिए नहीं, बल्कि भारत के इतिहास में किसी भी उद्योग की सबसे लंबी और संगठित हड़तालों में से एक मानी जाती है. यह मजदूरों की एकजुटता और ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सशक्त नेतृत्व का ही परिणाम था कि वे इतने लंबे समय तक संघर्ष कर सके.
महत्वपूर्ण परिणाम और प्रभाव
इस हड़ताल का परिणाम बेहद सफल रहा. इसने मजदूरों के काम के घंटों को कम करने और उनकी मजदूरी में उल्लेखनीय सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सबसे बढ़कर, इस आंदोलन ने मजदूरों को अपनी सामूहिक शक्ति और एकजुटता का एहसास कराया. यह हड़ताल इस बात का प्रमाण थी कि यदि मजदूर संगठित हों और उनके पास एक कुशल नेता हो, तो वे अपने अधिकारों के लिए लड़कर जीत सकते हैं.
इस सफलता ने बाद के श्रमिक आंदोलनों (जैसे 1924 और 1937 के राजनांदगांव आंदोलन) के लिए एक मजबूत नींव रखी और छत्तीसगढ़ में श्रमिक अधिकारों की लड़ाई में एक नया अध्याय जोड़ा.
श्रमिक आंदोलन क्या है?
श्रमिक आंदोलन मजदूरों द्वारा अपने हितों की रक्षा और सुधार के लिए चलाया गया एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन था. इसमें मुख्य रूप से हड़तालें, प्रदर्शन, यूनियन बनाना और मालिकों या सरकार के साथ बातचीत करना शामिल होता था.
छत्तीसगढ़, अपनी खनिज संपदा (कोयला, लौह अयस्क) और औद्योगिक गतिविधियों के कारण, हमेशा से श्रमिक आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है.
प्रमुख विशेषताएं और इतिहास
छत्तीसगढ़ में 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में उद्योगों (जैसे राजनांदगांव की BNC Cotton Mill) के विकास के साथ ही मजदूरों का शोषण भी बढ़ा. उन्हें अमान्वीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता था.
छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलनों की नींव रखने का श्रेय मुख्य रूप से ठाकुर प्यारेलाल सिंह को जाता है. ठाकुर प्यारेलाल सिंह के अलावा, बाद के दशकों में शंकर गुहा नियोगी जैसे नेताओं ने भी छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलनों को नई दिशा दी, खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और खनन श्रमिकों के लिए.
छत्तीसगढ़ में कई श्रमिक आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़े हुए थे. मजदूर नेता अक्सर स्वतंत्रता सेनानी भी होते थे, जो शोषण के खिलाफ लड़ाई को ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा मानते थे.
सन् 1924 में प्यारेलाल जी के नेतृत्व में मिल मजदूरों ने दूसरी बार राजनांदगांव में हड़ताल की. हड़ताली मजदूरों पर गोलियां भी चलीं. एक हड़ताली मजदूर शहीद हो गया और काफी मजदूर घायल हुए. जब ठाकुर प्यारेलाल वहां पहुंचे तो अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार करने का साहस नहीं किया पर ठाकुर प्यारेलाल को राजनांदगांव छोड़ने के लिये मजबूर करने लगे. पर ठाकुर प्यारेलाल कुछ और दिन राजनांदगांव में ही रहें मजदूरों की मांगें पूरी होने के बाद ही राजनांदगांव छोड़.
1924 का दूसरा मिल मजदूर आंदोलन
सन् 1924 में, ठाकुर प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में राजनांदगांव के मिल मजदूरों ने दूसरी बार हड़ताल की. यह आंदोलन भी मजदूरों की बेहतर परिस्थितियों और अधिकारों के लिए था, लेकिन इस बार स्थिति अधिक गंभीर हो गई.
हड़ताल के दौरान, प्रदर्शनकारी मजदूरों पर गोलियां चलाई गईं, जिसमें एक मजदूर शहीद हो गया और कई अन्य घायल हो गए. इस हिंसा के बावजूद, जब ठाकुर प्यारेलाल सिंह वहाँ पहुंचे, तो अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं की. हालांकि, उन्होंने प्यारेलाल सिंह पर राजनांदगांव छोड़ने का दबाव बनाना शुरू कर दिया.
लेकिन ठाकुर प्यारेलाल सिंह अपनी जिद पर अड़े रहे. उन्होंने अधिकारियों की बात नहीं मानी और तब तक राजनांदगांव में ही रुके रहे, जब तक कि मजदूरों की मांगें पूरी नहीं हो गईं. उनकी इस दृढ़ता ने एक बार फिर मजदूरों को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
स्वतंत्रता संग्राम में ठाकुर प्यारेलाल सिंह का योगदान और बलिदान
सन् 1930 में, कांग्रेस ने ठाकुर प्यारेलाल सिंह को बहिष्कार आंदोलन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी. इस आह्वान पर प्यारेलाल जी ने स्वयं आगे बढ़कर शराब की दुकानों पर पिकेटिंग (धरना) की, जो उनके व्यक्तिगत साहस और प्रतिबद्धता को दर्शाता है.
उसी सन् 1930 में, जब उन्होंने किसानों को संगठित करने का प्रयास किया, तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर एक साल के कठिन कारावास की सजा सुनाई.
दो साल बाद, सन् 1932 में, उनकी देशभक्ति और भी दृढ़ता से सामने आई. रायपुर में गाँधी चौक के सामने भाषण देते समय उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया और इस बार उन्हें दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया. इसी साल, ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ एक और बड़ी कार्रवाई की—उनकी वकालत की सनद (लाइसेंस) छीन ली गई. जब उन्होंने जुर्माने का भुगतान करने से इनकार किया, तो उनके घर का सारा सामान भी जब्त कर लिया गया.
जेल से रिहाई के बाद: बढ़ती राजनीतिक भूमिका
सन् 1934 में, जेल से रिहा होते ही ठाकुर प्यारेलाल सिंह का राजनीतिक जीवन और भी सक्रिय हो उठा. उनकी निष्ठा और बलिदान को देखते हुए, उन्हें तुरंत महाकौशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का मंत्री चुन लिया गया. यह उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता और कांग्रेस संगठन में उनके महत्व का प्रमाण था.
उनकी राजनीतिक यात्रा यहीं नहीं रुकी. सन् 1936 में, उन्होंने एक और महत्वपूर्ण पड़ाव हासिल किया जब उन्हें पहली बार असेंबली का सदस्य चुना गया. यह उनके लिए जनता की सेवा करने और विधायी प्रक्रिया में भाग लेने का एक नया मंच था.
इसी दौरान, शिक्षा के क्षेत्र में उनकी गहरी रुचि और दूरदृष्टि को देखते हुए, महात्मा गांधी ने उन्हें ‘नई तालीम’ (बुनियादी शिक्षा) के बारे में विचार-विमर्श के लिए व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित किया.
शिक्षा के क्षेत्र में मील का पत्थर: छत्तीसगढ़ कॉलेज की स्थापना (1937)
सन् 1937 में, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने छत्तीसगढ़ कॉलेज की स्थापना में अभूतपूर्व योगदान दिया, जो राज्य के शैक्षिक विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. यह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं थी, बल्कि यह छत्तीसगढ़ के शैक्षिक परिदृश्य में एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि यह छत्तीसगढ़ का पहला कॉलेज था.
उस समय उच्च शिक्षा के अवसर बेहद सीमित थे, और छात्रों को पढ़ाई के लिए अक्सर राज्य से बाहर जाना पड़ता था. ऐसे में, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने शिक्षा के महत्व को गहराई से समझा. उन्होंने स्थानीय युवाओं को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए इस कॉलेज की स्थापना का बीड़ा उठाया, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिए ज्ञान के नए द्वार खुले.
साथ ही उन्होंने राजनांदगांव रियासत में तीसरे श्रमिक आंदोलन का नेतृत्व भी किया, जो श्रमिकों के लिए और सुधार लाया.
जनता के विश्वास से हासिल की जीत
रायपुर नगर पालिका के ठाकुर प्यारेलाल लगातार तीन बार अध्यक्ष चुने गये. प्रथम बार सन् 1937 में, दूसरी बार सन् 1940 में और तीसरी बार सन् 1944 में. ठाकुर प्यारेलाल प्रचंड बहुमत से हर बार इसलिए चुने जाते थे क्योंकि उनके पास जनता का विश्वास, जनता का प्यार था. उस समय आज की तरह पैसा ही चुनाव लड़ने का साधन नहीं था. अध्यक्ष रहते हुए प्यारेलाल जी ने कई प्राइमरी स्कूल खोले, लड़कियों के लिये स्कूल खोले, दो नये अस्पताल खोले, सड़कों पर तारकोल बिछवाई, बहुत से कुंए खुदवाये.
छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ की स्थापना
सन् 1945 में प्यारेलाल जी ने छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ की नींव डाली और छत्तीसगढ़ के सभी जिले में बुनकरों की सहकारी संस्थाओं का निर्माण किया. इसके कारण अनगिनत बुनकर परिवार गरीबी से ऊपर उठे. इसके अलावा न जाने उन्होंने कितने संघों जैसे- धानी संघ, विश्वकर्मा संघ, ताम्रकार संघों का निर्माण किया.
सन् 1946 में ठाकुर प्यारेलाल जी ने छत्तीसगढ़ को सभी रियासतों में कांग्रेस की स्थापना की.
पत्रकारिता के माध्यम से जन जागरण: ‘राष्ट्र-बन्धु’ का प्रकाशन (1950)
शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता में ठाकुर प्यारेलाल सिंह की गहरी रुचि उनके पूरे जीवन में परिलक्षित होती रही. इसी कड़ी में, सन् 1950 में, उन्होंने ‘राष्ट्र-बन्धु’ नामक एक अर्ध-साप्ताहिक (हफ्ते में दो बार प्रकाशित होने वाला) पत्र का प्रकाशन आरंभ किया.
कांग्रेस से अलगाव और नई राजनीतिक पारी (1951-1952)
सन् 1951 में, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और अखिल भारतीय स्तर पर एक गांधीवादी संस्था, अखिल भारतीय किसान मज़दूर पार्टी के सदस्य बन गए, जिसकी अध्यक्षता आचार्य कृपलानी कर रहे थे. अपनी बेहतरीन सांगठनिक क्षमता के दम पर, प्यारेलाल जी ने इस नए दल को बहुत कम समय में ही इतना मजबूत बना दिया कि 1951-52 के पहले आम चुनाव में इसे दूसरा स्थान मिला. इसी पार्टी के टिकट पर, सन् 1952 के आम चुनाव में प्यारेलाल सिंह रायपुर से मध्य प्रदेश विधान सभा के सदस्य के रूप में फिर से चुने गए.
क्या है अखिल भारतीय किसान मजदूर पार्टी?
अखिल भारतीय किसान सभा भारत में किसानों के अधिकारों और सामंतवाद विरोधी आंदोलन के लिए काम करने वाला एक किसान मोर्चा है. इसकी स्थापना 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस के रूप में की गई थी.
भूदान आंदोलन: ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ की अंतिम पदयात्रा
सन् 1950 में चुनाव के तुरंत बाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने अनगिनत गांवों की पैदल यात्राएँ कीं और कहा जाता है कि अविभाजित मध्य प्रदेश का कोई भी हिस्सा उनके पदचिह्नों से अछूता नहीं रहा.
उनके इस अभूतपूर्व त्याग और समर्पण को देखकर, छत्तीसगढ़ के लोग उन्हें श्रद्धापूर्वक ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ कहने लगे थे. भूदान आंदोलन में उन्होंने हजारों एकड़ भूमि एकत्र की और उसे जरूरतमंद भूमिहीनों में वितरित किया.
अंतिम यात्रा और भाषण (1954)
सन् 1954 में, जब ठाकुर जी मध्य प्रदेश की पदयात्रा के लिए निकले, तो उनका लक्ष्य 2200 मील की दूरी साढ़े तीन महीनों में तय कर, तीन सौ गाँवों तक भूदान आंदोलन का संदेश पहुंचाना था.
यह यात्रा शारीरिक रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण थी. उन्होंने 15 दिनों तक लगातार बारिश में भी पदयात्रा जारी रखी. इसी दौरान, चलते वक्त उन्हें हृदय शूल (सीने में दर्द) का पहला दौरा पड़ा. अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण, उन्होंने इसे केवल “मस्कुलर पेन” कहकर टाल दिया और लगातार दो घंटे तक पैदल चलते रहे, लोगों से बातचीत करते रहे और उन्हें आश्वासन देते रहे.
एक युग का अंत: ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ का निधन
उसी रात 9 बजे, जब वे बिस्तर पर लेटे, उन्हें हृदय शूल का दूसरा और तीव्र दौरा पड़ा. इस बार वे समझ गए कि उनका समय निकट आ गया है. उन्होंने प्रभु का नाम जपा और ‘राम नाम’ करते-करते इस संसार से विदा ले ली.
22 अक्टूबर, सन् 1954 को खारुन नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार किया गया. उनके निधन पर पूरे छत्तीसगढ़ में शोक की लहर दौड़ गई, और लोगों ने गहरे दुख के साथ कहा, “छत्तीसगढ़ का गांधी चला गया.” ठाकुर प्यारेलाल सिंह का जीवन त्याग, संघर्ष और जनसेवा का एक ऐसा अप्रतिम उदाहरण है, जो आज भी प्रेरणा देता है.
ठाकुर प्यारेलाल सिंह पुरस्कार
छत्तीसगढ़ सरकार ने सहकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य को सम्मानित करने के लिए, महान स्वतंत्रता सेनानी और सहकारी आंदोलन के प्रणेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह की स्मृति में “ठाकुर प्यारेलाल सिंह पुरस्कार” की स्थापना की है.
इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की स्थापना वर्ष 2001 में की गई थी. यह उन व्यक्तियों या संस्थाओं को प्रदान किया जाता है जिन्होंने छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने और किसानों तथा कमजोर वर्गों के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
इस पुरस्कार के तहत 2 लाख रुपये की राशि प्रदान की जाती है. यह पुरस्कार ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सिद्धांतों और उनके द्वारा स्थापित सहकारिता के मूल्यों को जीवित रखने का एक प्रयास है.
सम्मान प्राप्तकर्ता
- प्रथम ‘ठाकुर प्यारेलाल सिंह सम्मान’ प्रितपाल बेलचंदन और बृजभूषण देवांगन को प्रदान किया गया था.
- 2024 में यह सम्मान डोंगरगढ़ के शशिकांत द्विवेदी को दिया गया है.