भारत में अनादि काल से परम्परागत शस्त्र, शास्त्र और शक्ति पूजन हो रहा है। हमारी यह परंपरा शास्त्रों के साथ शस्त्र पूजन और विधिवत शक्ति आराधना के लिए प्रेरित करती है. महाकवि निराला के मन और ह्दय से जब ”राम की शक्ति पूजा” कविता प्रस्फुटित हो रही होगी, तब निश्चित ही उन्हें अपनी इसी परंपरा का ही स्मरण रहा होगा. निराला जब इस कविता को लिख रहे थे, तब कोई सामान्य भावभूमि नहीं रही होगी, वह विशेष थी, राम की शक्ति पूजा अंधकार से होकर प्रकाश में आने की कविता है. राम कथा इस देश की सबसे लोकप्रिय कथा है, इसलिए वे इसे अपनी कविता के कथानक के लिए चुनते हैं, यह युद्ध सामान्य युद्ध नहीं है. यह राम-रावण का युद्ध रामत्व अर्थात् सत्य के पक्ष में युद्ध है. आपको हर वक्त कोई रावण मिलेगा और उससे संघर्ष करता हुआ सुविचार श्रीराम के रूप में मिलता है. इस युद्ध में निराला की जो सबसे बड़ी चिंता रही और जिसकी ओर वे सभी का ध्यान आकर्षित करते हैं, वह यह कहना है, “अन्याय जिधर है उधर शक्ति”, अत: वे अपना सर्वस्व शक्ति के लिए समर्पित कर देने की बात कहते हैं. वैसे भी देवी दुर्गासप्तसती में कहती भी हैं –
यो मां जयति संग्रामे यो में दर्पं व्योपहति।
यो में प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति।। (श्रीदुर्गासप्तशती,पञ्चमोऽध्यायः, श्लोक120)
अर्थात् ‘जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर्ण कर देगा और संसार में जो मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा स्वामी होगा’ इसका संदेश साफ है जो शक्ति सम्पन्न है, मां शक्ति की कृपा भी उसी ओर है. शक्ति अच्छा-बुरा नहीं देखती, वह आपकी सामर्थ्य देखती है कि आप उसके ताप को सहन करने में सक्षम हैं कि नहीं. निराला श्रीराम के मुख से कहलवाते भी हैं कि अन्यायी शक्तियाँ काफी संगठित है, इसलिए हमें सज्जन शक्ति को एकत्र आना है. वस्तुत: राम की व्यथा ही मानव मन की व्यथा है, जोकि सत्य के मार्ग पर चलते हुए धर्म की जय होते देखना चाहती है. यहां राम को जाम्वन्त की सलाह काम आती है, वे कहते हैं-
“हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर;
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन,
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन!” (कविता- राम की शक्ति-पूजा)
और उसके बाद हम देखते हैं कि परिस्थितियां पलट चुकी होती हैं. भगवान श्रीराम शक्ति की आराधना करते हैं, उसके बाद वे शक्ति को अपने साथ खड़ा पाते हैं.
वस्तुत: देखा जाए तो मां भगवती की आराधना के नौ दिन और इन नौ दिनों में नित्य प्रति शास्त्रों का पठन, मां भगवती के पूजन के साथ ही उनके हाथों में विराजमान विविध शस्त्रों का पूजन हर सनातनी हिन्दू विधि विधान से करते हैं और उसके बाद अंतिम दसवें दिन दशहरे पर अस्त्र-शस्त्रों का व्यापक स्तर पर सामूहिक पूजन करने की परंपरा हमारे समाज में सदियों से चली आ रही है. जिसके पास जो है यथाशक्ति छुरी, तलवार, गड़सा, धनुष-बाण, पिस्तौल, बंदूक या अन्य कुछ भी जो हमारी रक्षा करने में सहायक हो सकता है वह कोई भी अस्त्र हम विधि विधान से दशहरे पर उसका पूजन करते हैं. साथ ही जिन घरों में विद्या अध्ययन की परंपरा है और जो व्यापार से जुड़े हैं वे शस्त्रों के साथ अपने ग्रंथों व तराजू की पूरा करना नहीं भूलते.
वस्तुत: इस संदर्भ में परंपरा हमें यही कहती है कि जो हमें आगे बढ़ाने में सहायक हैं, वे हमारे सच्चे मित्र शस्त्र, शास्त्र और सामूहिक समाज की शक्ति है, जिसे हम देवी रूप में पूजते हैं . शस्त्रों की पूजा से परंपरा यह संकेत करती है कि जो शक्तिशाली है उसी के सभी मित्र हैं, कमजोर का कोई मित्र नहीं. कई उदाहरण भी हमारे सामने इस संदर्भ में मौजूद हैं. संभवत: यही कारण रहा कि हमारे ऋषि-मुनि अरण्यों में रहने के बाद भी शास्त्र के साथ शस्त्र की शिक्षा देते रहे। उनकी परा और अपरा विद्या भी शस्त्र और शास्त्र से मुक्त नहीं है.
शस्त्र और शास्त्र आपके आत्मिक बल को संवर्धित करनेवाले हैं। अथर्ववेद में कहा ही गया है, ‘पाशविक बल से कई गुना अधिक शक्तिवान आत्मिक बल होता है। ये आत्मिक बल जितने परिमाण से बढ़ेगा, उतने ही परिमाण से शत्रु के पाशविक बल घटेंगे।’ उदाहरण प्रत्यक्ष है-रावण जब पाशविक शस्त्रों से सुसज्जित होकर रथहीन श्रीराम के सामने पहुँचा तब विभीषण से श्रीराम ने कहा – जिसके रथ के पहिये शौर्य तथा धैर्य हैं, सत्य और शील ध्वजा पताका हैं , बुद्धि प्रचंड शक्ति है , श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष हैं, अचल मन तरकस है , ज्ञानी गुरु का आशीर्वाद रूप कवच है इसके समान विजय उपाय न दूजा, इसलिए ही अंत में विजय श्रीरामजी की ही होती है.
इसी तरह से ऋग्वेद में आज्ञा दी गई है कि जो मायावी, छली, कपटी अर्थात् धोखेबाज है, उसे छल, कपट अथवा धोखे से मार देना चाहिए। मायाभिरिन्द्रमायिनं त्वं शुष्णमवातिरः। ।1।11।6।
हे इन्द्र! जो मायावी, पापी, छली तथा जो दूसरों को चूसने वाले हैं, उनको तुम माया से मार दो।
फिर महापण्डित विदुर ने जो लिखा वह भी ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं –
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम् । तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत् ॥ (महाभारत विदुरनीति)
अर्थात, जो आपके साथ जैसा बर्ताव करें उसके साथ वैसा ही करिए, हिंसा करने के वालों के साथ हिंसक रूप में ही आचरण करें, इसमें कोई दोष नहीं । छल करनेवालों को छल से ही मार दो । जैसे महाभारत में श्री कृष्ण ने गदा युद्ध के अवसर पर भीम को यही मंत्रणा दी थी कि है भीम छल कपट से दुर्योधन को मारो, क्योंकि वह इसी योग्य है। भगवान श्रीकृष्ण कहा भी है –
ये हि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव।
धर्म संस्थापनार्थ हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया॥ (महाभारतम् -7.156.28)
(हे पाण्डव! मेरी निश्चित प्रतिज्ञा है कि धर्म की स्थापना के लिए मैं उन्हें मारता हूं, जो धर्म का लोप (नाश) करने वाले हैं।)
वेद में आदेश है की हमें प्रचंड शस्त्रों का अवश्य ही संग्रह करना चाहिए परन्तु इसके साथ ही अपराजेय चारित्रिक, मानसिक और आत्मिक बल का भी संचय करना चाहिए जैसा अर्जुन और भगवान श्रीराम ने किया था ।शक्ति आराधना के पर्व नवरात्री के पश्चात आने वाला विजयादशमी का पर्व विजयोत्सव के साथ जुड़ा हुआ है। शस्त्र-भक्ति की महिमा आसुरी ताकतों के खिलाफ दैवी शक्ति के विजय का महात्म्य दर्शाती है। शस्त्र की भक्ति हमें उसके दुरुपयोग की वृत्ति से दूर रखती है। इसी तरह से संस्कार और विवेक से ही शस्त्र के अहंकार से हम दूर रहते हैं । जैसे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा, जहां जाने से प्रत्येक स्वयंसेवक को सनातनी होने का गर्व ही नहीं आता वह अपनी परंपरा में शस्त्र, शास्त्र और शक्तिपूजन के सही मायनों को समझता है.
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 में विजय दशमी वाले दिन ही शक्ति सम्पन्न राष्ट्र की संकल्पना को साकार करने के लिए और देश को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उस समय संघ की प्रतिज्ञा में हर सदस्य देश को स्वतंत्र कराने का संकल्प लेते थे। स्वाधीनता के बाद यह संकल्प देश की बुराईयों को समाप्त करने का हो गया। हर स्वयंसेवक के लिए उसके राष्ट्र का परमवैभव ही उसका वैभव है। शस्त्र के सदुपयोग के लिए शास्त्र का ज्ञान होना जरूरी है. शस्त्र का दुरुपयोग एक ओर रावण और कंस बनाता है तो दूसरी ओर इसका सदुपयोग राम, कृष्ण और अर्जुन बनाते हैं. यह बात हर स्वयंसेवक आज शाखा में ठीक से समझ रहा है.
भारत को यदि पुनः विश्व शक्ति बनाना है तो हिंदुत्व को बचाए रखना होगा । हिन्दुत्व यानी भारत का स्व। स्वामी शिवानंद कहते हैं, ‘‘हिन्दू धर्म मनुष्य के तर्कसंगत दिमाग को पूर्ण स्वतंत्रता देता है। यह कभी भी मानवीय तर्क की स्वतंत्रता, विचार, भावना और इच्छा की स्वतंत्रता पर किसी अनुचित प्रतिबंध की मांग नहीं करता है। हिंदू धर्म स्वतंत्रता का धर्म है, जो आस्था और पूजा के मामलों में स्वतंत्रता का व्यापक अंतर देता है. यह ईश्वर की प्रकृति, आत्मा, पूजा के रूप, सृष्टि और जीवन के लक्ष्य जैसे प्रश्नों के संबंध में मानवीय तर्क और हृदय की पूर्ण स्वतंत्रता की अनुमति देता है।’’ भारत के संदर्भ में यही विविधता को बनाए रखना और अपनी परम्पराओं, संस्कार, संस्कृति, वेशभूषा और धर्म को बचाए रखना ही हिंदुत्व है। इसलिए आज की जरूरत है कि हम सभी देवी आराधना से शक्ति प्राप्त कर शस्त्र की विधिवत पूजा करें। अपने आत्मगौरव को जगाए रखें.
वास्तव में शस्त्र तो प्रतीक है, लेकिन हमें हर आसुरी शक्ति से निपटने के लिए हिम्मत चाहिए, पूजन का विधान तो उस अंदर की शक्ति को जागृत करना मात्र है। दशहरे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामूहिक शस्त्र और शास्त्र के शक्ति पूजन से संपूर्ण हिन्दू समाज में यह भाव जगा रहे, यही एक प्रयास है। शस्त्र और शास्त्र की पूजा भारत के लिए कोई नई नहीं है, हां, आज इतना अवश्य हुआ है कि जो सदियों से भारत भूमि पर चल रहा है, अब संघ भी उसमें हिन्दू समाज सामूहिकता के साथ सहभागी है.
– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
हिन्दुस्थान समाचार
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